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________________ -प्रवचनसार [ २९ उत्तर- अनङ्गशेखर । (दंडक ३२ वर्ण) पदार्थको जु ध्रौव्यरूप एक पच्छ मानिये, तु तासुमें प्रतच्छ दोष लच्छ लच्छ जानिये । कुटस्थ रूप राजतौ प्रवृत्त त्याजि भाजतौ, विराजतौ सदैव एक रूप ही बखानिये ॥ सु तो नहीं विलोकिये विलोकिये त्रिधातमीक, ___ एक वस्तुकी दशा अनेक होत मानिये । सुवर्ण कुण्डलादि होत दूधत घृतादि जोत, मृत्तिका घटादिको तथैव सो प्रमानिये ॥ ८२ ॥ दोहा । दरवमाहिं दो शक्ति हैं, भाषी गुन परजाय । इन विन कबहुँ न सधि सकत, कीजे कोटि उपाय ॥ ८३ ॥ नित्य तदातमरूपमय, ताको गुन है नाम । जो क्रमकरि वरतै दशा, सो परजाय ललाम ॥ ८४ ॥ कहीं कहीं है द्रव्यकी, दोइ भांति परजाय । नित्यभूत तद्रूप इक, दुतिय अनित्य बताय ॥ ८५ ।। नित्यभूतको गुन कहैं, दुतिय अनित्य विभेद । ताहि कही परजाय गुरु, यह मत प्रबल अछेद ॥ ८६ ।। तिन परजायकरि दरव, उपजत विनशत मान । धौव्यरूप निजगुणसहित, दुहूँ दशामें जान ॥ ८७ ॥ याही कर सद्भाव तसु, यह है सहज स्वभाव । यहां तर्क लागै नहीं, वृथा न गाल बजाव ।। ८८ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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