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कविवर वृन्दावन विरचित
' उक्त च देवागमे-चोपाई । श्रीगुरु त्रिविधि तत्त्वको साधत । प्रगट दिखावत हैं निरवाधत । है घट परजाय धरै जो सोना । ताहि नाशि करि मुकुट सु होना ।। ८९ ॥ हैं तहां कुम्भ सो जो रुचि रेखी । ताके होत विषाद विशेखी । १ मौलि बनेंतें जाके प्रीती । ताके हरष होत निरनीती ॥९० ॥ जाके सोनाहीसों काजा । सो दुहुमें मध्यस्थ विराजा । तब कहु दरव त्रिविधि नहिं कैसे ? प्रगट विलोक हेतु जुत ऐसे ॥ ९१ ॥ गोरस एक त्रिविधि परनवै । दूध दधी घृत जग वरनवै । प्रनवन सकति नहीं तामाहिं । तब किहि भाँति त्रिविधि हो जाहिं ।। ९२ ॥ देखो ! प्रथम दूध रस रहा। दधि होते गुन औरै गहा।।
घृत होते फिर औरहि भयो। स्वाद भेद गुन औरहि लयो ॥९३ ॥ ६ दूधव्रती दधि घृतको खाता। दधिवती घृत दूध लहाता । ।
घृतव्रतधारी पय दधि गहै । पृथक तत्त्व तब क्यों नहिं अहै ।। ९४ ॥ एकै रूप जु गोरस होतो । तीन दशा तब किमि उद्दोतो । है तातें तत्त्व निधातम सही । न्यायसिंधु मथिं श्रीगुरु कही ॥९५ ॥
(१९), उसको इन्द्रियोंके बिना ज्ञान-सुख कैसे ? समाधान ।
___ मत्तगयंद। . . . . हूँ जो चहु घातिय कर्म विनाशि, अतिंद्रियरूप भयो अमलाना । हैं ताहि अनन्त जगे वर चीजरु, तेज अनन्त अपार महाना ॥
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