________________
प्रवचनसार
[३१
। सो वह आपहि ज्ञान सुखादि, सरूपमयी प्रनयौ भगवाना । जासु विनाश नहीं कवहीं, गुन वृन्द चिदानंदकंद प्रधाना ॥ ९६ ।।
(२०) केवलीको शारीरिक सुख-दुःख नहीं है। केवल ज्ञानधनी भगवानकी, रीति प्रधान अलौकिक गई । । देह धरें तउ देहज दुःख, सुखादि तिन्हें नहिं होत कदाई ।।
जातें अतिद्रिय रूप भये सुख, छायक कुन्द सुभायक पाई । तातें तिन्हें न विकार कछु, अविकार अनन्तप्रकार बताई । ९७ ।।
दोहा । सकल घात संघात हत, प्रगट्यो बीज अनन्त । परम अतिंद्रिय सुखमयी, जाको कबहुँ न अनन्त ।। ९८ ॥ ताको जे मतिमंद शठ, भा कवलाहार । धिग है तिनकी समुझिको, बार बार धिक्कार ।। ९९ ।। गुनथानक छट्टम विर्षे होत अहार विहार । ताके ऊपर ध्यानगत, तहां न भुक्ति लगार ॥ १०० ॥ जे तेरम गुनथानमें, अचल चहूँ अरि जार । छायकलब्धित्वभाव जहँ, तहँ किमि कवलाहार ? ।। १०१॥ क्षुधा त्रपा बाधा करै, इन्द्री पीडै प्रान । यह तो गति . संसारमें, जगजीवनकी जान ॥ १०२ ।। जहां अतिंद्रिय सुखसहित, चिदानन्द चिद्रूप । तहां कहां बांधा जहां, प्रगटी शकति अनूप ॥ १०३ ॥