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________________ ३२] कविवर वृन्दावन विरचित Homemocratermerazzar.srorexnorrorizer मोह करम विन वेदनी, निरविष विषधर जेम । जरी जेवरी बलरहिन, अबल अघाती तेम ॥ १०४ ॥ सकत अनंतानंत जस, प्रगट भयो निरवाध । तहँ चेतन तनसहित कहँ, लगत न तनिक उपाध ॥ १०५॥ निजानन्द रसपान तहँ, चिदानन्द कहँ होत । नोतनकरमसुवरगना, तिनकरि काय उदोत ।। १०६ ॥ कर्मवरगना प्रति समय, पूर्वबंध संजोग । आय लगहिं पुनि झरपरहिं टिकहिं न बिन उपयोग ॥ १०७ ॥ निविड़ मोहनी विघन अरु, ज्ञान दर्शनावर्न । इनहिं नाशि निर्मल भये, अमल अचल पद धर्न ॥ १०८ ॥ ते सांचे सर्वज्ञ हैं, तेई आप्त प्रधान । तिनके वचन प्रमान हैं, भवि-उर-भ्रम-तम भान ॥ १०९ ॥ (२१) वहाँ पूर्ण ज्ञान और सुख । षट्पद । ज्ञानरूप परिनये, आपु जे केवलज्ञानी । तिनके सकलप्रतच्छ, द्रव्य गुन-परज-प्रमानी ॥ सो नहिं जानहिं ताहि, अवग्रह आदि क्रियाकर । जातें यह छदमस्थ, ज्ञानकी रीति प्रगट तर ॥ निहचै सो श्रीभगवानके, सकल आवरन नाश हुव । सर्वावभास निज ज्ञानमें, लोकालोक प्रतच्छ धुव ।। ११० ।।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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