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प्रवचनसार
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(२२) उन्हें कुछ भी परोक्ष नहीं ।
षट्पद । इस भगवान महान, केवलज्ञान धनीकहँ । रह्यो न कछू परोक्ष, वस्तुके जानपने महँ ॥ जातें इन्द्रियरहित, अतीन्द्रियरूप विराजै ।
अरु सरवंग समस्त, अच्छके गुन छवि छाजै ॥ स्वयमेव हि ज्ञान सुभावकी, प्रापति है जिनके विमल । तिनको प्रतच्छ तिहुँ लोकके, वस्तु वृन्द झलकहिं सकल || १११ ॥ (२३) प्रमाणज्ञान सर्वगत ।
मनहरण । ज्ञान गुनके प्रमान आतमा विराजमान,
जैसे हेम गुन पीत गौरवादिको धरै । सोई ज्ञानगुन ज्ञेयके प्रमान भापै जथा,
अनि गुन उष्ण जितौ ईंधन तितो जरै ॥ ज्ञेयको प्रमान वृन्द, लोक औ अलोक सर्व,
तासुको विलोकत प्रतच्छरेखा ज्यों करै । ताहीतें सरवगति ज्ञानको सुसिद्ध करी, स्वामीके वचन अनेकान्त रससों भरै ॥११२ ॥
(२४-२५) उनमें दोप कल्पनाका निराकरण ज्ञान गुनके प्रमान आतमा न मानत हैं,
ऐसे जो अजान इस लोकमें कुमती हैं ।