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________________ प्रवचनसार [ ११५ दोहा । मेदभाव जेते कहे, तेते वचनविलास । निरविकलप चिद्रूप है, गुन अनंतकी रास ॥ ११६ ॥ समल अमल दोनों दशा, तामें आतम आप । चार मेदमय सुथिर है, देखो निजघट व्याप ॥ ११७ ॥ यों जब उर सरधा धरै, तजि परसों अनुराग । परममोखसुख तव लहै, चिदानंदरस पाग ।। ११८ ।। . मनहरण । जैसे लाल फूलके उपाधों फटिकमाहिं, लालरूप लसत विशाल ताकी छटा है । तैसे ही अनादि पुदगल कर्मबंधके, संजोगसों उपज्यौ जीवमाहिं राग ठदा है ।। जबै उपाधीक रंग संगते नियारौ होत, तबै शुद्ध जोति जगै फटै मोहघटा है। एक परनत परमानू ज्यों न बँधै त्यों ही, रागादि विभाव विना बंधभाव कटा है ॥ ११९ ॥ छप्पय । जब यह आतम आप, भेदविज्ञान धार करि । निज सरूपकों लग्दै, सकल भ्रमभाव टार करि ।। करता करम सुकर्म, कर्मफल चारभेदमय । चिदविलास ही समल, अमल दोउ दशामाहिं हय । इमि जानि तब हि परवस्तुते, रागादिक ममता हरै । निज शुद्ध चेतनाभावमें, सुथिर होय शिवतिय वरै ॥ १२० ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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