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प्रवचनसार
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दोहा । मेदभाव जेते कहे, तेते वचनविलास । निरविकलप चिद्रूप है, गुन अनंतकी रास ॥ ११६ ॥ समल अमल दोनों दशा, तामें आतम आप । चार मेदमय सुथिर है, देखो निजघट व्याप ॥ ११७ ॥ यों जब उर सरधा धरै, तजि परसों अनुराग । परममोखसुख तव लहै, चिदानंदरस पाग ।। ११८ ।।
. मनहरण । जैसे लाल फूलके उपाधों फटिकमाहिं,
लालरूप लसत विशाल ताकी छटा है । तैसे ही अनादि पुदगल कर्मबंधके,
संजोगसों उपज्यौ जीवमाहिं राग ठदा है ।। जबै उपाधीक रंग संगते नियारौ होत,
तबै शुद्ध जोति जगै फटै मोहघटा है। एक परनत परमानू ज्यों न बँधै त्यों ही,
रागादि विभाव विना बंधभाव कटा है ॥ ११९ ॥
छप्पय ।
जब यह आतम आप, भेदविज्ञान धार करि । निज सरूपकों लग्दै, सकल भ्रमभाव टार करि ।। करता करम सुकर्म, कर्मफल चारभेदमय ।
चिदविलास ही समल, अमल दोउ दशामाहिं हय । इमि जानि तब हि परवस्तुते, रागादिक ममता हरै । निज शुद्ध चेतनाभावमें, सुथिर होय शिवतिय वरै ॥ १२० ॥