________________
११६ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
कवित्त । (३१ मात्रा) है इहि प्रकार निरदोष बतायो, शिवपुरको मग सुखद सदीव । है ताहि त्यागि जो आन जतनसों, चाहत होन मूढ़ शिवपीव ॥
सो मूरख परधान जगतमें, तोस आश विपरीत अतीव । जीभ स्वादके कारन सो शट, पानी मथिके चाहत घीव ।। १२१॥
अधिकारान्तमंगल । मत्तगयन्द । श्रीजिनचंद सुखाम्बुधिवर्द्धन, भव्यकुमोदप्रमोदक नीको । जन्मजरामृततापविनाशन, शासन है जनके हितहीको । शुद्धपयोग निरोग सु भेषज, पोषनको समरत्थ अधीको । सो इत मंगल भूरि भरो प्रभु, वंदत वृन्द सदा तुमही को ।। १२२ ॥
दोहा । वंदों श्रीसरवज्ञपद, भ्रमतमभंजनभान । विधनहरन मंगलकरन, देत विमल कल्यान ॥ १२३ ॥ श्रीमत्प्रवचनसारकी, भाषाटीकामाहिं । दरवनिको सामान्यतः, कथन समाप्त कराहिं ।। १२४ ॥
इतिश्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यकृतपरमागमश्रीप्रवचनसारजी ताकी वृन्दावनकृतभाषाविर्षे दरवनिका सामान्यवर्णनका अधिकार चौथा पूरा भया। ___ इहां ताई सर्व गाथा १२७ एक सौ सत्ताईस भई और
भाषाके छंद सर्व ४६२ चारिसौ बासष्ठ भये सो जयवंत होऊ । लिखी वृन्दावनने यही प्रथम प्रति है । मंगलमस्तु । श्रीरस्तु । मिती मार्गशीर्ष कृष्णा १३ ॥ गुरुवार संवत् १९०५॥ काशीजीमें, निज परोपकारार्थ । भूल चूक विशेपीजन शोषि शुद्ध कीजो॥
40
MMMM