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प्रवचनसार
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ऐसे कुन्दकुन्दजी बखानी ध्यान ध्याता वृन्द, सोई सरधानै जाकी मिथ्यामति चुरी है ॥११७||
प्रश्न-दोहा जो मन चपल पताकपट, पवन दीपसम ख्यात । सो मन कसे होय थिर, उत्तर दीजे भात ॥११८॥
उत्तरपांचों इन्द्रिनके जिते, विषय भोग जगमाहिं । तिनहीसों मन रातदिन, ममतो सदा रहाहि ॥११९॥ मोह घटे वैशगता, होत तजे सब भोग । निज सुभाव मुखमाहिं तब, लीन होय उपयोग ॥१२०॥ तहां सुमनको संचके, एक निजातम भाव । तामधि आनि झुकाइये, मेदज्ञानपरमाव ॥१२११ तहां सो मनकी यह दशा, होत औरसे और । जैसे काग-जहाजको, सूझै और न ठौर ॥१२२॥ जो कहुँ इत उतको लखै, तौ न कई विसराम । तब हि होय एकाग्र मन, ध्यावे आतमराम ||१२३॥ ऐसे आतमध्यानतें, मिल अतिन्द्री शर्म । शुद्ध बुद्ध चिद्रूपमय, सहज अनाकुल धर्म ॥१२४॥ (५२) गाथा-१९७ सर्वज्ञ भगवान क्या ध्याने है ?
मनहरण । घातिकर्म घाति भलीभांत जो प्रतच्छ सर्व,
___ वस्तुको सरूप निज ज्ञानमाहिं धरै है । १. पताका-निशानका वस्त्र ।
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