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________________ १६८ ] कविवर वृन्दावन विरचित MMMMMMMMM (४९) गाथा-१९४ इससे क्या होता है ? मतगयन्द । है जो भवि होय महाव्रतधारक, या सु अनुव्रतकारक कोई । या परकारसों जो परमातम, जानिके ध्यावत है थिर होई ॥ है सो सुविशुद्ध सुभाव अराधक, मोहकी गांठि खपावत सोई । हैं ग्रंथनिको सब मंथनिकै, निरग्रंथ कथ्यौ रससार इतोई ॥११५॥ (५०) गाथा-१९५ मोहग्रन्थी टूटनेसे क्या-क्या होता है? _ मनहर । । अनादिकी मोह दुखुद्धिमई गांठि ताहि, जाने दूर किया. निज भेदज्ञान चलने । ऐसो होत संत वह इन्द्रिनिके सुख दुख, सम नानि न्यारे रहै तिनके विकलते ॥ सोई महाभाग मुनिराजकी अवस्थामाहिं, राग दोष भावको विनाशै मूल थलने । पावै सो अखंड अतिइन्द्रिय अनंत सुख, . ____एक रस वृन्दावन रहै सो अचलते ॥११६॥ (५१) गाथा-सुध्यानसे अशुद्धता नहीं आती। मोहरूप मैलको खिपावै मेदज्ञानी जीव, इन्द्रिनिके विषैसों विरागता सु पुरी है । मनको निरोधिके सुभावमें सुथिर होत, जहां शुद्ध चेतनाकी ज्ञानजोत फुरी है ।। सोई चिनमूरत चिदातमाको ध्याता जानो, पर वस्तुसे भी जाकी प्रीति रीति दुरी है।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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