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________________ प्रवचनसार [ १६७ आपने सरूपमें अचल परवस्तुकों न, अवलंब करै यात अनालंब ठानौ हौं ॥१०९॥ दोहा। ज्ञानरूप दरसनमई, अतिइन्द्री धुवः धार । महा अरथ पुनि अचलवर, अनालंब अविकार ॥११०॥ सात विशेषनि सहित इमि, लख्यौ आतमाराम । ताही शुद्ध सरूपमें, हम कीनों विसराम ॥१११॥ पंच विशेषनिको कथन, फरि माये बहु थान । मनालंब अरु महारथ, इनको · सुनो वखान ॥११२॥ मनहरण । कर्ममल नासिके प्रकाश होत ज्ञान जोत, सो तो एकरूप ही अभेद, चिदानंद है । तासमें सभेद वृन्द ज्ञेय प्रतिबिंब सब, तासकी सपेच्छ भेद अनंत सुछन्द है ।। पांचों जड़दके सरूपको दिखावै सोई, याहीते महारथ कहावत अमंद है । परवस्तुको सुभाव कभी न अलंब करे, तात अनालंय याकों भाषं जिनचंद है ॥११३॥ (४८) गाथा-१९३ निजात्माके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं है। दोहा। तन धन सुख दुख मित्र अरि, अधुव भने जिनभूप । धौव निजातम ताहि गहु, जो उपयोगसरूप ॥११४॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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