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प्रवचनसार
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और पुग्गलीक वृन्द वैनकी उमंगमाहिं,
चरचा अनेक धर्मधारा वितरत हैं। येते परदर्वनिको बन्यौ सनबंव तऊ, महामुनि ममता न तासमें धरत हैं ।। ८६ ॥
दोहा। जो इनमें ममता धेरै, तजि समतारस रंग । तवही शुद्धपयोगमें, मुनिपदवी है भंग ॥ ८७ ।। तातै विगतविकार मुनि, वीतरागता धार । संगसहित वरते तऊ, निजरसलीन उदार ॥ ८८ ।। (१६) गाया-२१६ छेदका स्वरूप ।
__ मनहरण । जतनको त्यागिकै जु मुनि परमादी होय,
आचरन करै विवहार काय करनी । सैनासन बैठन चलन आदि ताकेवि,
चंचलता धारै जो अशुद्धताकी धरनी ।। तामें सर्वकाल ताको निरंतर हिंसा होत,
ऐसे सरवज्ञ वीतरागदेव वरनी । जातें निज शुद्धभावघातकी बड़ी है हिंसा, तातें सावधानहीसों शुद्धाचार चरनी ॥ ८९ ॥
दोहा । जब उपयोग अशुद्धकी, होत प्रबलता चित्त । तब ही विना जतन मुनी, क्रिया करै सुनि मित्त ।।९० ॥