SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार [ १८९ और पुग्गलीक वृन्द वैनकी उमंगमाहिं, चरचा अनेक धर्मधारा वितरत हैं। येते परदर्वनिको बन्यौ सनबंव तऊ, महामुनि ममता न तासमें धरत हैं ।। ८६ ॥ दोहा। जो इनमें ममता धेरै, तजि समतारस रंग । तवही शुद्धपयोगमें, मुनिपदवी है भंग ॥ ८७ ।। तातै विगतविकार मुनि, वीतरागता धार । संगसहित वरते तऊ, निजरसलीन उदार ॥ ८८ ।। (१६) गाया-२१६ छेदका स्वरूप । __ मनहरण । जतनको त्यागिकै जु मुनि परमादी होय, आचरन करै विवहार काय करनी । सैनासन बैठन चलन आदि ताकेवि, चंचलता धारै जो अशुद्धताकी धरनी ।। तामें सर्वकाल ताको निरंतर हिंसा होत, ऐसे सरवज्ञ वीतरागदेव वरनी । जातें निज शुद्धभावघातकी बड़ी है हिंसा, तातें सावधानहीसों शुद्धाचार चरनी ॥ ८९ ॥ दोहा । जब उपयोग अशुद्धकी, होत प्रबलता चित्त । तब ही विना जतन मुनी, क्रिया करै सुनि मित्त ।।९० ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy