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________________ १८० ] फविवर वृन्दावन विरचित संजमके घातकी न वात जाके बाकी रहै, ____ समतासुभाव जाको आवै न कथनमें ॥ सदाकाल सर्व परदनिको त्यागें रहे, मुनिपदमाहिं जो अखंड धीर मनमें । ऐसो जब होय तब चाहै गुरु पास रहे, चाहै सो विहार करै जथाजोग वनमें ॥ ८४॥ (१४) गाथा-२१४ श्रामण्यकी परिपूर्णताका स्थान होनेसे म्वद्रव्यमें ही लीनताका उपदेश । सम्यकदरशनादि अनंतगुननिजुत, ज्ञानके सरूप जो विराजे निजातमा । ताहीमें सदैव परिवर्तत रहत और, मूलगुनमें है सावधान वातवातमा ॥ सोई मुनि मुनिपदवीमें परिपूरन है,. अंतरंग वहिरंग दोनों भेद भातमा । नहीं अविकारी परदर्व परिहारी वृन्द, वरै शिवनारी जो विशुद्ध सिद्ध जातमा ।। ८५ ॥ (१५) गाश-२१५ मुनिको सूक्ष्म परद्रव्य प्रतिबंध भी श्रामण्य के छेदका आयतन होनेसे निपेध्य हैं । भोजन उपास औ निवास जे गुफादि कहे, अथवा विहारकर्म जहां आचरत हैं। तथा देहमात्र परिग्रह जो विराजै और, गुरु शिष्य आदि मुनिसंग विचरत हैं ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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