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कविवर वृन्दावन विरचित
दोहा । जो मुनि सुपरविभेद धरि, करे शुद्ध सग्धान । निजस्वरूप आचरनमें, गाड़े अचल निशान ॥ १७ ॥ सकल सूत्र सिद्धान्तको, भलिभांति रस लेत । तप संजम साथै सुधी, गग दोष तजिदेन ॥ १८ ॥ जिवन मरण विपै नहीं, जाके हरप दिपाद । शुद्धपयोगी साधु सो, रहित संकल अपवाद ॥ ४९ ॥
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(१५)
शुद्धोपयोगकी पूर्णता केवलज्ञानकी प्राप्ति
मत्तगयंद। जो उपयोग विशुद्ध विभाकर, मंडित है चिन्मूरतराई । सो वह केवलज्ञान धनि, सव ज्ञेयके पार ततच्छन जाई ।। घाति चतुष्टय तास तहाँ, स्वयमेव विनाश लहैं दुखदाई । शुद्धपयोग परापति प्राप्ति की महिमा यह वृन्द मुनिंद न गाई ॥५०॥
. षट्पद । जिस आतमके परम सुद्ध, उपयोग सिद्ध हुव । तिसके जुग आवरन, मोहमल विधन नास धुव ॥ सकल ज्ञेयके पार जात सो, आप ततच्छन ।
ज्ञान फुरन्त अनन्त, सोई अरहंत सुलच्छन ॥ महिमा महान अमलान नव, केवल लाभ सुधाकरन । शिवथानदान भगवानके, वृन्दावन वंदत चरन ॥ ५१ ॥