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फविवर वृन्दावन विरचित
काल अखंडित मानतें, समय भेद मिटि जाय । तथा सरव परदेशतें, जगै समय परजाय ॥११२॥ तथा कालके है नहीं, तिर्यक-परचें रूप । एक यहू दूपन लगै, यों भापी जिनम्प ॥११३॥ काल असंख अनू-हको, सुनो वरतना भेद । प्रथमहिं एक प्रदेशतें, वरततु है निरखेद ॥११॥ पुनि तसु आगेकी अनू, तिनसों वर्तत सोय । पुनि तसु आगे और सो, वर्तत है अनु जोय ॥११५॥ असंख्यात अनु-रूपकरि, ऐसे वरतत नित्त । काल दरवकी वरतना, यो जिन भापी मित्त ॥११६ । याके ऊरध ऊरधे, होहि समय परजाय । सब दरवनिपर करत है, वर्तनमाहिं सहाय ॥११७ ।
कवित्त ( ३१ मात्रा) ताः तत्त्वारथके मरमी, तिनको प्रथमहिं यह उपदेश । कालदरव परदेशमात्र है, ध्रौवप्रमान रूप तसु मेश ॥ नित्तभूत निरवाध असंखा, अनु अनमिलन सुभाव हमेश । ताहीकी परजाय समय है, यों भाषी सरवज्ञ जिनेश ।११८॥
दोहा। मंगलमूल जिनिंदको, वदों वारंवार । जसु प्रसाद पूरन भयो, बड़ो ज्ञेयअधिकार ॥११९ ।
इति श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यकृत परमागम श्रीप्रवचनसारजी ताको वृन्दावनकृतभाषाविषं विशेषज्ञेयाधिकार नामा पांचमा अधिकार पूरा भया।