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________________ प्रवचनसार [ १८१ कुल रूप वयकी विशेषताई लिये वृन्द, मुनिनिको प्रियतर लगे सरवंग है ।। तापै यह जाय सिर नाय कर जोरि कहै, स्वामी मोहि अंगीकार कीजिये उमंग है । ऐसे जब कहै तव स्वामी अंगीकार करें, तबै वह नयो मुनि रहै संग संग है । ४८॥ अथ आचार्य लक्षण-चौपाई । पंचाचार आप आचरहीं । औरनिको तामें थिर करहीं । दोनोंविधिमें परम प्रवीने । निज अनुभव समतारस भीने ॥४९॥ है जे उत्तमकुलके अवतारी । जिनहिं निशंक नमहिं नरनारी ।। है रहितकलंक करता त्यागी । सरल सुभाव सुजसि बड़भागी ॥५०॥ हीनकुली नहिं वंदनजोगू । ताके होहि न शुद्धपयोगू । है कुलक्रमके - कूरादि कुभावें । हीनकुलीमें अबशि रहावें ॥५१।। ई यात कुलविशेषताधारी । उचितकुली पावै पद भारी ।। है अरु जिनकी बाहिज छबि देखी । यह प्रतीति उर होत विशेखी ॥५२॥ है है इनके घट शुद्धप्रकासा । साम्यभाव अनुभव अभ्यासा । अंतरंगगत : वाहिज दरसे । रूपविशेष 'यही सुख सरसै ॥५३॥ हैं बालक तथा बुढ़ापामाहीं । बुद्धि चपल अरु विकल रहाहीं । है तिनसों रहित सूरि परधाना । धीर बुद्धि गुन कृपानिधाना ॥५४॥ जोवनदशा काममद व्यापै । तासों वर्जित अचलित आपै ।। यह विशेषता वयक्रमकेरी । ताहि धरै आचारज हेरी ॥५५।।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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