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फविवर वृन्दावन विरचित
। धेरै सुष्टुवय वर्जितदूपन । शीलसिंधु गुनरतनविभूपन । क्रियाकांड सिद्धांतनिके मत | कहि समुझावहिं मुनिजनको सत ॥५६॥ जो मुनिको दूपन कहुँ लागै । मूलोत्तरगुनमें पद पांगै । प्राच्छित देय शुद्ध करि लेही । तातें अतिप्रिय लागत तेही ॥५७|| ऐसे आचारजपै जाई। कहै नवीन मुनी शिर नाई ।
मोकों शुद्धातमको लाहू । हे प्रभु प्रापति करि अवगाहू ॥५॥ है तब आचारज कहहिं उदारा । तोको शुद्धातम अविकारा ।
ताकी लाभ करावनिहारी । यही भगवती दिच्छा प्यारी ।५९॥ । ऐसी सुनि सो मन हरपाई। मानहु रंक महानिधि पाई । वारवार गुरुको सिरनाई । तब मुनिसंग रहै सो जाई ॥६॥ (४) गाथा-२०४ यथानातरूपका धारक ।
मनहरण । मेरे चिनमूरततै मिन्न परदर्व जिते,
तिनको तो मैं न कहूं भयौ तिहूँकालमें । तेऊ परदर्व मेरे नाहिं जाते कोई दर्व,
काहूको सुभाव न गहत काहू हालमें ॥ तातें इसलोक विर्षे मेरी कछु नाहिं दिखे,
मेरो रूप मेरी ही चिदातमाकी चालमें । ऐसे करि निश्चै निज इन्द्रिनिको जीति जथा, जातरूपधारी होत ताको नावों भाल मैं ॥६१॥
दोहा । जथाजातको अर्थ अब, सुनो भविक धरि ध्यान । ग्रंथपंथ निग्रंथ जिमि, मंथन करी प्रमान || ६२ ।।