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प्रवचनसार
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स्वयंसिद्ध जसो कछुक, है आतमको रूप । तैसो निजघरमें धेरै, अमल अचल चिद्रूप ॥६३ ॥ दूजो अर्थ प्रतच्छ जो, जैसो . मुनिपद होय । तैसी ही मुद्रा धरै, दरवलिंग है सोय ॥६४ ॥ ऐसे दोनों लिंगको, धारत धीर उदार । नथाजात ताको कहैं, बरै सोइ शिवनार ॥६५॥ (५) गाथा-२०५ अथ द्रव्यलिंग लक्षण ।
मनहरण । जथाजात दलिंग एसो होत जहां,
परमानू परमान परिगहन रहतु है । शीस और डाढ़ीके उपारि डारै केश आप,
शुद्ध निरगंथपंथ मंथके गहतु है ॥ हिंसादिक पंच जाके रंच नाहिं संचरत,
ऐसे तीनों जोग संच संच निबहतु है । देह खेह-खानके सँवारनादि क्रियासेती, - रहित विराजै जैसी आगम उकतु है ॥६६॥
(६) गाथा-२०६ अथ भावलिंग । परदर्वमाहिं मोह ममतादि भावनिको,
नहीं न अरंभ कहूँ निरारम्भ तेसो है । शुद्ध उपयोग वृन्द चेतना सुभावजुन,
तीनों जोग तसो तहां चाहियत जसो है ॥ परदर्वके अधीन वर्तत कदापि नाहि,
आतमीक ज्ञानको विधानवान वैसो है ।