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________________ प्रवचनसार [ १८३ स्वयंसिद्ध जसो कछुक, है आतमको रूप । तैसो निजघरमें धेरै, अमल अचल चिद्रूप ॥६३ ॥ दूजो अर्थ प्रतच्छ जो, जैसो . मुनिपद होय । तैसी ही मुद्रा धरै, दरवलिंग है सोय ॥६४ ॥ ऐसे दोनों लिंगको, धारत धीर उदार । नथाजात ताको कहैं, बरै सोइ शिवनार ॥६५॥ (५) गाथा-२०५ अथ द्रव्यलिंग लक्षण । मनहरण । जथाजात दलिंग एसो होत जहां, परमानू परमान परिगहन रहतु है । शीस और डाढ़ीके उपारि डारै केश आप, शुद्ध निरगंथपंथ मंथके गहतु है ॥ हिंसादिक पंच जाके रंच नाहिं संचरत, ऐसे तीनों जोग संच संच निबहतु है । देह खेह-खानके सँवारनादि क्रियासेती, - रहित विराजै जैसी आगम उकतु है ॥६६॥ (६) गाथा-२०६ अथ भावलिंग । परदर्वमाहिं मोह ममतादि भावनिको, नहीं न अरंभ कहूँ निरारम्भ तेसो है । शुद्ध उपयोग वृन्द चेतना सुभावजुन, तीनों जोग तसो तहां चाहियत जसो है ॥ परदर्वके अधीन वर्तत कदापि नाहि, आतमीक ज्ञानको विधानवान वैसो है ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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