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________________ १८४ ] कविवर वृन्दावन विरचित मोखसुखकारन भवोदधि उधारनको, ___ अंतरंगभावरूप जैनलिंग ऐसो है ॥६॥ दोहा। दरवितभावितरूप इमि, जथाजातपद धार । अब आगे जो करत है, सुनो तासु विसतार ॥६८॥ (७) गाथा-२०७ साक्षात् मुनिपद । मनहरण । परमगुरू सो दर्वभाव मुनिमुद्रा धारि, जथाजातरूप मनमाहिं हरसत है । गुरूको प्रनाम थुति करै तब वारवार, जाके उर आनंदको नीर वरसत है ॥ मुनिव्रतसहित जे क्रियाको विभेद वृन्द, तासुको श्रवनकरि हिये सरसत है । ताहीको गहनकरि ताहीमें सुथिर होत, तबै वह मुनिपद पूरो परसत है ॥६९।। दोहा । परम-सुगुरु अरहंत जिन, तथा अचारज जान । जिनपै इन दिच्छा गही, तिनहिं नमै 'थुति ठान ॥७०॥ सुनि व्रत क्रिया गहन करे, ताहीमें थिर होय । तव मुनिपद पूरन लहै, दरवित भावित दोय ॥७१॥ रागादिक विनु आपको, लखै सिद्ध समतूल । परमसमायिककी दशा, तब सो लहै अतूल ॥७२॥ JU.
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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