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कविवर वृन्दावन विरचित
मोखसुखकारन भवोदधि उधारनको, ___ अंतरंगभावरूप जैनलिंग ऐसो है ॥६॥
दोहा। दरवितभावितरूप इमि, जथाजातपद धार । अब आगे जो करत है, सुनो तासु विसतार ॥६८॥ (७) गाथा-२०७ साक्षात् मुनिपद ।
मनहरण । परमगुरू सो दर्वभाव मुनिमुद्रा धारि,
जथाजातरूप मनमाहिं हरसत है । गुरूको प्रनाम थुति करै तब वारवार,
जाके उर आनंदको नीर वरसत है ॥ मुनिव्रतसहित जे क्रियाको विभेद वृन्द,
तासुको श्रवनकरि हिये सरसत है । ताहीको गहनकरि ताहीमें सुथिर होत, तबै वह मुनिपद पूरो परसत है ॥६९।।
दोहा । परम-सुगुरु अरहंत जिन, तथा अचारज जान । जिनपै इन दिच्छा गही, तिनहिं नमै 'थुति ठान ॥७०॥ सुनि व्रत क्रिया गहन करे, ताहीमें थिर होय । तव मुनिपद पूरन लहै, दरवित भावित दोय ॥७१॥ रागादिक विनु आपको, लखै सिद्ध समतूल । परमसमायिककी दशा, तब सो लहै अतूल ॥७२॥
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