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________________ प्रवचनसार [१८५ NAVNAVANA ~ VAN प्रतिक्रमन आलोचना, प्रत्याख्यान जितेक । जति मति श्रुति अनुसार सौ, धारै सहितविवेक ॥ ७३ ॥ तीनोंकालविर्षे सो मुनि, तीनों जोग निरोध । निज शुद्धातम अनुभवै, वरजित क्रियाविरोध ॥ ७४ ।। तब मुनिपदपूरन तिन्हें, दरवित भावित जान । वृन्दावन वंदन करत, सदा जोरि जुग पान ।। ७५ ॥ १ (८-९) गाथा-२०८-२०९ श्रमण कदाचित् छेदोपस्थापनके योग्य है सो कहते हैं। मनहरण । महाव्रत पंच पंच समिति सु संच पंच, इन्द्रिनिको वंच केश हुँचत विराजे है । षडावश्य क्रिया दिगअम्बर गहिया जल, हौंन त्यागि दिया भूमिसैन रैन साज है ॥ दाँतवन करै नाहिं खड़े ही अहार करे, सोऊ एक वार प्रान धारनके काजे है । येई अठाईस मूलगुन मुनि पदवीके, निश्चैकरि कही जिनराज महाराज है ॥७६ ॥ तेई मूलगुनविर्षे मुनि जो प्रमादी · होय, तवै ताकै संजमको छेद भंग होत है । तहां सो अचारज पै जायके प्रनाम करि, मुनिमंडलीके मध्य कहै दोष खोत है ॥ जाते येई गुंन सर्व निर्विकल्प सामायिक, भावरूप मुनिपदवीके मूल जोत है ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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