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कविवर वृन्दावन विरचित
ते गुरु मो मन मल हरो, प्रगटो स्वपरविवेक । आपा पर पहिचानमें, रहै न भर्म परतेक ॥१४३॥
चौपाई। पूरन होत अवै अविकार । हेयादेय छठो अधिकार । आगे चारितको अधिकार । होत अरंभ शुद्ध सुखकार ॥१४४॥
छन्द कवित्त । PL मोह भरम तम भर्यो अभिंतर, होत न आपा पर निरधार । पुगल-जनित ठाठ बहुविधि लखि, ताकों आपा लखत गवार ॥ आपरूप जो वस्तु विलच्छन, ज्ञायक लच्छन धेरै उदार । भेदज्ञान विन सो नहिं सूझत, है वह "तिनके ओट पहार" ॥१४५||
दोहा। जैवतो जिनदेव जो, पायौ शुद्ध सरूप । कर्म कलंक विनाशिके, भये अमल चिद्रूप ॥१४६।। सो इत नित मंगल करो, सुखसागरके इन्दु । वृन्दावन वंदन करत, अर्ह वरन जुत विंदु ॥१४७ ___ इति श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यकृत परमागम श्री प्रवचनसारजीकी वृन्दावनकृत भाषाविर्षे द्रव्यनिका विशेषरूप कथनका अधिकारके पीछे विवहारिक जीवदशा ज्ञेयतत्त्वकथन ऐसा छठ्यो अधिकार सम्पूर्णम् ।
मिती पौष वदी ९ भौम संवत् १९०५ काशीजीमें वृन्दावनने लिखी स्वपरोपकाराय । इहांताई गाथा २०२ । और भाषाके छंद सब ७२८ भये सो जयवंत होहु१. रती भर भी। २. तृणके अर्थात् तिनकाके ।