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________________ २१२ ] कविवर वृन्दावन विरचित तसु ज्ञाता चिद्रूपको, जानि करै सरधान । अरु आचार हु करत सो, जतिपथरीतिप्रमान ॥ ४३ ॥ ऐसे आगम ज्ञान अरु, तत्त्वारथ सरधान । संजम भाव इकत्रता, यह रतनत्रयवान ॥ १४ ॥ सो सूच्छिम हू राग जो, धेरै तनादिकमाहिं । तिते कलंक हित सु तो, शिवपद पावै नाहिं ॥ ४५ । तात आगमज्ञानजुत, निरविकलप सु समाधि । वीतरागतासहित है, तब सब मिटै उपाधि ॥ ४६ ॥ सोरठा। जाके होय न ज्ञान, चिदानंद चिद्रूपको । सोई जीव अयान, ममता धेरै तनादिमें ॥ १७ ॥ सो न लहै निरवान, मोह गंस तसु हंसपर । गुभ्यो गुप्त ही आन, मेदज्ञान विनु नहिं लखत ॥ ४८॥ ताते हे बुधिवान, लेहु स्वरूप निहार निज । चिद्विलास अमलान, तामें थिर हो सिद्ध हो । ४९ ॥ (९) गाथा-२४० वह तीनों आत्मज्ञानके युगपदपनाको . सिद्ध करते हैं। ____ सर्वया मात्रिका ६ जाके पंचसमिति सित सोभत, तीन गुपत उर लसत उदार । पंचिंद्रिनिको जो संवर करि, जीत सकल कषाय विकार । हैं सम्यकदर्श ज्ञान सम्पूरन, जाके हिये वृन्द दुतिधार । है शुद्ध संजमी ताहि कहैं जिन, सो मुनि वरै विमल शिवनार ॥५०॥ ११. गांसी-फांसी । २. आत्मापर । ३. चुमा है ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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