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________________ ८६ ] कविवर वृन्दावन विरचित गुन कहिये विस्तारकों, जो चौड़ाईरूप । ___ संग वसत नित दरवके, अविनाभावसरूप ॥ ६॥ . परजकों आयत कहैं, ज्यों लम्बाई होय । घटै वढे कमसों रहै, भेद तासुके दोय ॥७॥ एक दरव परजाय है, गुनकी परज़ दुतीय । दो दो भेद दुहूनमें, सुनो समरसी जीय ! ॥ ८ ॥ अथ पर्यायभेद कथन-मनहरण । दर्वकी परज दोय भांति यो कथन करी, एक है समान जाति दूजी असमान है । पुग्गलानु अनेकको खंघ सो समानजाति, जीव पुदगल मिलें असमानवान है ॥ गुनहूकी दोय परजाय एक सुभाविक, षटगुनी हानि-वृद्धि जथा जोग ठान है। दूसरो विभाव वरनादि गुन खंधविपैं, ज्ञानादिक पुग्गलके जोग ज्यों मलान है ॥९॥ वस्त्रहीको पाट जोड़ें होतु है समानजाति, तथा पुग्गलानु मिलें खंध परजाय है । रेशमी कपासी मिलें होत असमान चीर, तथा देह जीव पुदगल मिले पाय है ॥ जथा वस्त्र सेत है सुभाव गुन परजाय, तथा षटगुनी हानि-वृद्धि भेद गाय है । परके प्रसंगसे तरंग ज्यों विभाव त्यों ही, _ ज्ञानादि परके संग विभाव कहाय है ॥१०॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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