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कविवर वृन्दावन विरचित
गुन कहिये विस्तारकों, जो चौड़ाईरूप । ___ संग वसत नित दरवके, अविनाभावसरूप ॥ ६॥ .
परजकों आयत कहैं, ज्यों लम्बाई होय । घटै वढे कमसों रहै, भेद तासुके दोय ॥७॥ एक दरव परजाय है, गुनकी परज़ दुतीय । दो दो भेद दुहूनमें, सुनो समरसी जीय ! ॥ ८ ॥
अथ पर्यायभेद कथन-मनहरण । दर्वकी परज दोय भांति यो कथन करी,
एक है समान जाति दूजी असमान है । पुग्गलानु अनेकको खंघ सो समानजाति,
जीव पुदगल मिलें असमानवान है ॥ गुनहूकी दोय परजाय एक सुभाविक,
षटगुनी हानि-वृद्धि जथा जोग ठान है। दूसरो विभाव वरनादि गुन खंधविपैं,
ज्ञानादिक पुग्गलके जोग ज्यों मलान है ॥९॥ वस्त्रहीको पाट जोड़ें होतु है समानजाति,
तथा पुग्गलानु मिलें खंध परजाय है । रेशमी कपासी मिलें होत असमान चीर,
तथा देह जीव पुदगल मिले पाय है ॥ जथा वस्त्र सेत है सुभाव गुन परजाय,
तथा षटगुनी हानि-वृद्धि भेद गाय है । परके प्रसंगसे तरंग ज्यों विभाव त्यों ही,
_ ज्ञानादि परके संग विभाव कहाय है ॥१०॥