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________________ प्रवचनसार [ ८७ कवित्त । (३० मांत्रा) है इहि विधि दरवनिके गुन परज, मनी जिनागममें तहकीक । मेदज्ञानकरि भविक वृन्द दिन, सरधा रुचिसों धैर अधीक ॥ मिथ्यामती न जानै याकों, एक एक नव गहै अठीक । शिवहित हेत अफल करनी तसु, "पीट मूढ़ सांपकी लीक" ॥११॥ (२) गाथा-९४ अब आनुवंगिक ऐसी यह ही स्वंसमयपरसमयकी व्यवस्था (भेद) उपसंहार । पट्पद । जे अज्ञानी जीव, देहहीमें रति राचे । अहंकार ममकार घरे, मिथ्यामद माचे ॥ तिनहीको परसमय नाम, भगवंत कहा है । अरु जो आतमभाव विर्षे, लवलीन रहा है । तिन आतमज्ञानी जीवको, स्वसमयरत जानो सही । वह चिद्विलास निजरूपमें, रमत वृन्द निज निधि लही ॥ १२ ॥ मनहरण । अनादि अविद्याते आच्छादित है सांचो ज्ञान, असमान देहहीको जानै रूप अपना । नाना निंद्यक्रियामाहिं अहंममकार करै, सोई परसमै ताकी झूठी है जलपना । जिनके स्वरूपज्ञान भयो है जथारथं औ, . मिटी मोह राग दोष भावकी कलपना । एकरूप ज्ञानजोति जगी है अकंप जाके, . सोई स्वसमंयको न भवाताप तपना ॥ १३ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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