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________________ प्रवचनसार ५ ओ नमः सिद्धेभ्यः । - अथ चतुर्थ-ज्ञेयतत्त्वाधिकारः । तत्र इष्टदेव वन्दना । दोहा । वन्दों श्रीसर्वज्ञ जो, वर्जित सकलविकार । विधनहरन मंगलकरन, मनवांछित-दातार ॥१॥ ज्ञेयतत्त्वके कथनका, अब अधिकार अरंभ । भीगुरु करत दयालचित, त्यागि मोह मद दंभ ॥२॥ कुन्दकुन्द गुरुदेवके, चरनकमल सिर नाय । वृन्दावन भाषा लिखत, निज परको सुखदाय ॥ ३ ॥ (१) गाथा-९३ ज्ञेयतत्व पदार्थका द्रव्य-गुण-पर्याय स्वरूप वर्णन । मनहरण । जेते ज्ञानगोचर पदारथ हैं ते ते सर्व, दर्व नाम निहचैसों पा, सरवंग हैं । फेरि तिन द्रव्यनिमें अनंत अनंत गुण, भाषे जिनदेव जाके वचन अभंग हैं ॥ पुनि सो दरव और गुननिमें वृन्दावन, परजाय जुदी-जुदी वसैं सदा संग हैं । ऐसी दोई भांति परजायको न जानै जोई, सोई मिथ्यामती परसमयी कुढंग हैं ॥४॥ विशेषवर्णन-दोहा ज्ञेय पदारथ है सकल, गुन-परजै संजुक्त । तातें दरव कहावहीं, यह जिनवकी उक्त ॥ ५॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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