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________________ ४० ] कविवर वृन्दावन विरचित सो श्रुतिकेवली नाम कहावत, जानत वस्तु जथावत अंगा । लोकप्रदीप रिपीपुरने, इहिभांति भनी भ्रमभान प्रसंगा । १४३॥ मनहरण । निरदोष गुनके निधान निरावनज्ञान, ऐसे भगवान ताकी वानी सोई वेद है । ताके अनुसार जिन जान्यो निजआतमाको, सहित विशेष अनुभवत अखेद है ॥ सोई ध्रुतिकेवली कहावै जिन आगममें, आपापर जाने भले भरम उछेद है । केवली प्रभूके पत्तच्छ इनके पगेच्छ, ज्ञायक शकतिमाहिं इतनो ही भेद है !!१४४ ॥ केवलीके आवरन नाशते प्रतच्छ ज्ञान, वेदे एक काल सुन्दसंपत अनंत है । इनके करम आवरनत करम लिये, जेतो जानपनो तेतो वेदै सुखसंत है ॥ कोऊ भानु उदै देख सकल पदारथको, कोऊ दीखे दीपद्वार थोरी वस्तु तंत है । जानत जथारथ पदारथको दोऊ वृन्द, प्रतच्छ परोच्छहीको मेद वरतंत है ।।१४५।। जैसे मेघावर्नतें वखाने भानुविभाभेद, जोतिमें विमेद माने प्रगट लवेद है। एक ज्ञानवारामें नियारा पंचभेद तैसे, नानत क्रिया में तहाँ भेदको निषेद है ॥ M
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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