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प्रवचनसार
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सोई सर्व वस्तुको विलोकै जाने सरवंग,
रंच हु न बाकी रहै ज्ञानके उजालमें । आरसीकी इच्छा विना जैसे घटपटादिक, होत प्रतिबिंबित त्यों ज्ञानी गुनमालमें ।। १३६ ॥
दोहा । राग उदयतें संगरह, दोप भावतें त्याग । मोहउदय पर-परिनमन, ऐसे तीन विभाग ॥ १३७ ।। गहन-तजन-परपरिनमन, इनहीतें नित होत । . तास नाशकरिके भयो, केवल जोत उदोत ॥ १३८ । जिनकी ज्ञानप्रभा अचल, यथा महामनि-जोत । प्रथमहिं जो सब लखि लियो, सो न अन्यथा होत ॥ १३९ ॥ जथा आरसी स्वच्छके, इच्छाको नहिं लेश । लसत तहाँ घंटपट प्रगट, यही सुभाव विशेष ॥ १४० । तैसे श्रीसरवज्ञके, इच्छाको नहिं अस । निरइच्छा जानत सकल, शुद्धचिदातम हंस ॥ १४१॥ ऐसे श्रीसर्वज्ञ हैं, ज्ञान भान अमलान । वृन्दावन तिनको नमत, सदा जोरि जुगपान ॥ १४२ ॥
श्रुतज्ञानी-केवलज्ञानीमें कथंचित् समानता ।
। मत्तगयन्द । जो भवि भावमई श्रुतिते, निज आतमरूप लखै सरवंगा.। ज्ञायकभावमई वह आप, निजौ-परको पहिचानत चंगा ।