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________________ ३८ ] कविवर वृन्दावन विरचित आपनी आभासतें सफेदी भेद दूधकी सो, नीलवर्न दूधको करत दरसन है ॥ ताही भांति केवलीके ज्ञानकी शकति वृन्द, ज्ञेयनको ज्ञानाकार करत लसंत है । निहचै निहारे दोऊ आपसमें न्यारे तौऊ, . व्याप्य अरु व्यापकको यही विरतंत है ॥ १३४ ॥ (३१) उपरोक्त प्रकार पदार्थों कथंचित् ज्ञानमें । षट्पद । जो सब वस्तु न लसें, ज्ञान केवलमहँ आनी । तो तब कैसे होय, सर्वगत केवलज्ञानी ॥ जो श्रीकेवलज्ञान, सर्वगत पदवी पायो । तो किमि वस्तु न बसहि, तहां सब यो दरसायो । उपचार द्वारतें ज्ञान जिमि, ज्ञेयमाहिं प्रापति कही ।। ताही प्रकारतें ज्ञानमें, वस्तु वृन्द वासा लही ।। १३५ । (३२) सभीको जानता, फिर भी सवसे भिन्न । ___ मनहरण । केवली जिनेश परवस्तुको न गहै तजै, तथा पररूप न प्रनवै तिहूँ कालमें । जातें ताकी ज्ञानजोति जगी है अकंपरूप, छायक स्वभावसुख वेवै सर्व हालमें ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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