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________________ प्रवचनसार [ ३७ (२८) ज्ञानमें परज्ञेयोंका प्रवेश नहीं है । षट्पद । ज्ञानी अपने ज्ञानभाव, ही माहिं विराजै । ज्ञेयरूप सब वस्तु, आपने छाज ॥ मिलिकर बरतें नाहि, परस्पर ज्ञेयरु ज्ञानी । ऐसी ही मर्याद, वस्तुकी बनी प्रमानी ॥ जिमि रूपीदरवनि को प्रगट, देखत नयन प्रमानकर । तिमि तहां जथारथ जानिके, वृन्दावन परतीति धर ॥ १३२ ॥ (२९) स्व-सामर्थ्यसे ही ज्ञाता-दृष्टा । मनहर । ज्ञानी ना प्रदेशतें प्रवेश करै ज्ञेयमाहिं, तथा व्यवहारसे प्रवेश हू सो करै है । अच्छातीत ज्ञानतें समस्त वस्तु देखे जानें, पाथरकी रेख ज्यों न संग परिहरै है ॥ जैसे नैन रूपक पदारथ विलोकै वृन्द, तैसे शुद्ध ज्ञानसों अमल छटा भरै है । मानों सर्व ज्ञेयको उखारिके निगलि जात, शक्त व्यक्त तासको विचित्र एसो धेरै है ॥ १३३ (३०) ज्ञान-ज्ञेयका दृष्टान्त जैसे इस लोकमें महान इन्द्रनील रत्न, दूधमाहिं डार तब ऐसो विरतंत है । Saamwamanaraaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaam
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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