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________________ २६ ] कविवर वृन्दावन विरचित तातें ज्ञान प्रकाशमें, जेय सकल झलकंन । सो निजज्ञान सुभावमय, आय प्रगट भगवंत ॥ १२७॥ यातें श्रीसरवज्ञको, यो सर्वगत नाम । अन्तरछेदी ज्ञानमय, जगणपक जगधाम ॥ १२८ ॥ यातें जो विपरीत मत, ते सत्र सकल असिद्ध । स्यादवादतें सर्वगत... श्रीमहंत सु सिद्ध ॥ १२९॥ (२७) एकत्व-अन्यत्व? मनहर। जोई ज्ञान गुन सोई आतमा बखाने जाते, दोऊमें कथंचित न मेद व्हरात है । आवमा विना न और द्रव्यमाहि ज्ञान लस, ज्ञान गुन जीवमें ही दीखे जहरात है ॥ तथा जसे ज्ञान गुन जीवमें विराजे तैसे, और ह अनन्त गुन तामें गहरात है । गुनको समूह इन्च अपेक्षासों सिद्ध सव्व, ऐसो स्यादवादको पताका फहरात है ॥१३०॥ मिला। है गुण ज्ञानाहिको नदि जीव कहें, तदि और अनन्त जिते गुन हैं । ६ तिनको तय कौन अधार वने, निरवार विना कहु को सुन है ? n है गुनमाहिं नहीं गुन और वसे, श्रुति साधत श्रीजिनकी धुन है । तिसत गुन पर्न अनंतमर्या, चिनमूरति य सु आपुन है ॥ १३१ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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