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________________ प्रवचनसार [ १३५ छप्पय । जब पुग्गल परमानु, पुवकालानु त्याग करि । अगिलीपर वह गमन करत, गति मंद तासु धरि ।। समय कहावत सोय, तहां आधार दरव गहु । तब तीनों निरवाघ सधैं, इक समयमांहिं बहु ।। लखि निजकर अंगुरी वक्र करि, एक समय तीनों दिखें । उतपाद वक्र वय सरलता, भ्रा अँगुरी देनों विखे ॥ १०१ ॥ (१७) गाथा-१४३ प्रत्येक समयमें कालपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला है। मनहरण । एकही समैमें उतपाद ध्रुव वय नाम, ऐसे तीनों अर्थनिको काल दर्व धार है। निश्वकरि यही सदभावरूप सत्ता लिये, . निजाधीन निरावाध वर्तत उचारै है। जैसे एक समैमें त्रिभेदरूप राजत है, .. तैसे सर्वकाल सर्व कालान पसार है । समें परजाय उतपाद वयरूप राजै, दर्वकी अपेच्छा ध्रुव धरम उदारै है ॥ १०२ ॥ (१८) गाथा-१४४ प्रत्येक कालाणु द्रव्यका एक प्रदेशमात्रपना। वस्तुको सरूप असतित्वको निवासभूत, सत्ता रसकूपको अधार परदेस है ।।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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