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________________ १३४ ] कविवर वृन्दावन विरचित (१६) गाथा-१४२ काल पदार्थका उध्वंप्रचय निरन्वय है, इसका खंडन । माधवी। जिस काल समैकहँ एक सभे, महँ वै उतपाद विराजि रहा है । तव ह वह आपु सुभावविप, __समवस्थित है धुवरूप गहा है । परजाय समै उपजै विनश, अनु पुग्गलकी गति रीति जहा है । यह लच्छन काल पदारथको, . सुविलच्छन श्रीगुरुदेव कहा है ॥ ९६ ॥ दोहा । कालदरवको क्यों कहो, उपजनविनशनरूप । समय परजहीकों कहो, वयउतपादसरूप ॥ ९७ ॥ और दरवको छांटिके एकै समयमँझार । उतपत धुव वय सधत नहिं, कीजै कोट विचार ॥ ९८ ॥ उतपत अरु वयके विषै, राजत विदित विरोध । अंधकार परकाशवत, देखो निज घट शोध ॥ ९९ ॥ ताः कालानू दरव, धौव गहोगे जब्ब । निरावाध एकै समय, तीनों सधि है तन्न ॥ १० ॥ १. पथा।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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