SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ ] कविवर वृन्दावन विरचित जो कहि है नभपच्छ गहि, तब तो सांची बात है. जो अंशनिकरि एक कहि, तब विरोध दरसात ।। ८४ ॥ इक अगुरीके छेत्रसों, दूजेसों नहि मेल । अंश अपेच्छा इक कहें, यह 'लरिकनिको खेल ॥ ८५ । जुदे जुदे जो अंश कहि, नभ अखंडता त्याग । तौ प्रति अंश असंख नभ, चहियत तितौ विभाग ।। ८६ ॥ ताते नय विवहारत, अंश कथा उर आन | कारज विदित विलोकिक, जिन आगम परमान ।। ८७ ॥ (१५) गाथा-१४१ तिर्यक्प्रचय तथा ऊर्ध्वप्रचय । मनहरण । काल बिना बाकी पंच दर्वनिके परदेश, ऐसे जैनवैनसों प्रतीति कीजियतु है। एक तथा दोय वा अनेक विधि संख्या लिय, अथवा असंख तक चित दीजियतु है । ताके आगे अनंत प्रदेश लगु मेद वृन्द, जयाजोग सबमें - विचार लीजियतु है । काल दर्व एक ही प्रदेशमात्र राजनु है,.. __ ऐसो सरधान सुद्ध सुधा पीजियतु है ।। ८८ ॥ अकाशके अनंत प्रदेश हैं अचल तैसे, धर्माधर्म दोऊके असंख थिर थपा है। POTTPOSTMCRIRAMINETROPOESPram+10mAmteTROTROPIOIRATIRECTORRAIMER:COPEECXICORCE:307. १. बालकोंका ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy