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प्रवचनसार
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तातें इस आतमसों ममता । तजि करि तू अब धरि उर समता ॥ मम घट ज्ञानजोत अब जागा । विषयभोग विषप्तम मोहि लागा ॥१४॥ निजअनुभूतरूप वरनारी । तासों रमन चहत अविकारी। । इहि विधि परविरागजुत वानी । कहै नारिसों भेदविज्ञानी ॥१५॥
पुत्रसंबोधन-वचन । हो इस जनके तनके जाये । पुत्र सुनो मम वचन सुहाये ॥ तू इस आतमसों नहिं जाया । यह निहचै करि समुझ सु भाया ॥१६॥ तात तुम मम ममता त्यागो । समताभाव-सुधारस पागो ॥ यह आतम निज ज्ञानजोतिकर । प्रगट भयो उर-मोह-तिमिर-हर ॥१७॥ याके सुगुन सुपूत सयाने। हैं अनादित संग प्रधाने ॥ तिनसों प्रापति होन चहै है। तुमसों यह समुझाय कहै है ॥१८॥
दोहा । बन्धुवरगसों आपुको, या विधि लेय छुड़ाय । कहि विरागके वचन बर, मुनिपद धौर जाय ॥ १९ ॥ जो आतमदरसी पुरुष, चाहै मुनिपद लीन । सो सहजहि सुकुटुम्बसों, है विरकत परवीन ॥२०॥ ताहि जु आय पर कहूँ, कहिवेको सनबंध । तो पूर्व परकारसों, कहै वचन निरबंध ॥ २१ ॥ कछु ऐसो नहिं नियम जो, सब कुटुम्ब समुझाय । तवही मुनिमुद्रा धेरै, बसै सु वनमें जाय ॥ २२ ॥ सब कुटुम्ब काहू सुविधि, राजी नाहीं होय । गृह तजि मुनिपद धरनमैं, यह निहचै करि जोय ॥ २३ ॥