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________________ १७६ ] कविवर वृन्दावन विरचित तैसेही भवि वृन्द तुम, दुखसों छूटन हेत । यह मुनिमारग आचरौ, जो सुभावनिधि देत ॥६॥ (२) गाथा-२०२ श्रमण होनेका इच्छुक पहले क्या-क्या करता है उसका उपदेश । द्रुमिला। अपने सुकुटंब समूहनिसों, वह पूछिकै भेदविज्ञानधनी । गुरु मात पिता रमनी सुतसों, निरमोहित होय विराग भनी ॥ तव दर्शन ज्ञान चरित्र तथा, तप वीरज पंच अचार गनी । इनको दिढ़ताजुत धारत है विधि, सों सविवेक प्रमाद हनी ॥ ७ ॥ अथ वन्धुवर्ग संबोधन-विधि-चौपाई। मुनिमुद्रा जो धारन चहै । सो इमिसव कुटुम्बसों कहै । जो यह तनमें चेतनराई । सो आतम तुम्हारो नहिं भाई ॥ ८॥ यह निहचैकरि तुम अवधारो । तातै मोसों ममता छोरो । मो उर ज्ञानजोत परकासे । आपुहि आप बंधु ढिग भासे ॥ ९ ॥ मातुपिता-संबोधन । इस जनके तनके पितुमाता । अहो सुनो तुम वचन विख्याता । इस तनको तुमने उपजाया । आतमको तुम नहिं निपजाया ॥१०॥ यह निहचै करके अवधारो। तातै मोसों ममता छौं । ज्ञानजोतिजुत आतमरामा । यह प्रगट्यो है चिदगुनग्रामा ।११॥ अपनो सहज सुभाव सु सत्ता । सोई मातपिता धुववत्ता । तासों यह अब प्रापत हो है । यात मोसों तजिये मोहै ॥१२॥ स्त्रीसंबोधन-वचन । हे इस चेतन तनकी नारी । रमी तु तनसों बहुत प्रकारी । आतमसो तू नाहिं रमी है । यह निहचकरि जानि सही है ॥१३॥ को
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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