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फविवर वृन्दावन विरचित
जो कहुं बने बनाव तो, पूरवकथित प्रकार । कहि विरागजुत वचन वर, आप होय अनगार ।। २४ ॥ तहां बन्धुके वर्गमें, निकटभव्य कोइ होय । सुनि विरागजुत वचन तित, मुनिव्रत धार सोय ॥२५॥
अथ पंचाचारग्रहण विधि । अब जिस विधिसों गहत हैं, पंचाचार पुनीत । लिखों सुपरिपाटीसहित, जथा सनातनरीत ॥ २६ ॥
मनहरण । आतमविज्ञानी जीव आपने सरूपको,
सुसिद्धके समान देखि जानि अनुभवता । उपाधीक भावनितें आपुको नियारो मानि,
शुभाशुभक्रिया हेय जानिके न भवता ॥ पुवबद्ध उदैते विकारपरिनाम होत,
रहै उदासीन तहां आकुल न पवता । सो तो परदर्बनिको त्यागी है मुभावहीत, गहै ज्ञानगुन वृन्द तामें लवलवता ॥२७॥
दोहा। ऐसे ज्ञानी जीवको, अब क्या त्यागन जोग । अंगीकार करै कहा, जहं सुभावरस भोग ॥ २८ ॥ पै चारित्रसुमोहवश, होहिं शुभाशुभभाव । तासु अपेच्छा” तिन्है, त्याग गहन दरसाव ॥२९॥ प्रथमहि गुनथानकनिकी, परिपाटी परमान । अशुभरूप परनति तजे, निहचै सो बुधिवान ॥ ३० ॥