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________________ १७४ ] फविवर वृन्दावन विरचित जो कहुं बने बनाव तो, पूरवकथित प्रकार । कहि विरागजुत वचन वर, आप होय अनगार ।। २४ ॥ तहां बन्धुके वर्गमें, निकटभव्य कोइ होय । सुनि विरागजुत वचन तित, मुनिव्रत धार सोय ॥२५॥ अथ पंचाचारग्रहण विधि । अब जिस विधिसों गहत हैं, पंचाचार पुनीत । लिखों सुपरिपाटीसहित, जथा सनातनरीत ॥ २६ ॥ मनहरण । आतमविज्ञानी जीव आपने सरूपको, सुसिद्धके समान देखि जानि अनुभवता । उपाधीक भावनितें आपुको नियारो मानि, शुभाशुभक्रिया हेय जानिके न भवता ॥ पुवबद्ध उदैते विकारपरिनाम होत, रहै उदासीन तहां आकुल न पवता । सो तो परदर्बनिको त्यागी है मुभावहीत, गहै ज्ञानगुन वृन्द तामें लवलवता ॥२७॥ दोहा। ऐसे ज्ञानी जीवको, अब क्या त्यागन जोग । अंगीकार करै कहा, जहं सुभावरस भोग ॥ २८ ॥ पै चारित्रसुमोहवश, होहिं शुभाशुभभाव । तासु अपेच्छा” तिन्है, त्याग गहन दरसाव ॥२९॥ प्रथमहि गुनथानकनिकी, परिपाटी परमान । अशुभरूप परनति तजे, निहचै सो बुधिवान ॥ ३० ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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