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________________ १२८ ] कविवर वृन्दावन विरचित जीव अमूरत तन धर, तासु असंख प्रदेश । सो केसे करि संभवे, लघु दीरघ जसु मेस ।। ५८ ॥ संकोचन अरु विस्तग्न, दोइ शकति जियमाहि । जहँ जसे तनको धेरै, तहँ तैसो ई जाहि ॥ ५९ ॥ ज्यों दीपक परदेशकरि, जो कछु घरत प्रमान । लघु दीरघ ढकना ढके, तजत न अपनो बान ।। ६० ।। वालक वयतै तरुन जब, होत प्रगट यह देह । बढ़त प्रदेश समेत तन, यामें कह संदेह ।। ६१ ॥ थूल अंग रुज संगत, जालु कृशित व्है जात । तहँ प्रदेश संकोचता, विदित विलोको भात ॥ ६२ ॥ (१२) गाथा-१३८ कालाणु अप्रदेशी ही है । ___ मनहरण । कालानू दरव अप्रदेशी है असंख अनू, ' मिलन सुभावके सरवथा अभावते । सो प्रदेश मात्र पुग्गलानूके निमित्तसेती, समै पर्ज प्रगटिकै वर्तत वतावते । आकाशके एक परदेशतें दुतीयपर, जवै पुगलानु चले मंदगति दावत । ऐसे निश्च विवहारकालको सरूप भेद, ज्ञानी जीव जानिके प्रतीत चित लावते ।। ६३॥ है
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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