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कविवर वृन्दावन विरचित
जीव अमूरत तन धर, तासु असंख प्रदेश । सो केसे करि संभवे, लघु दीरघ जसु मेस ।। ५८ ॥
संकोचन अरु विस्तग्न, दोइ शकति जियमाहि । जहँ जसे तनको धेरै, तहँ तैसो ई जाहि ॥ ५९ ॥ ज्यों दीपक परदेशकरि, जो कछु घरत प्रमान । लघु दीरघ ढकना ढके, तजत न अपनो बान ।। ६० ।। वालक वयतै तरुन जब, होत प्रगट यह देह । बढ़त प्रदेश समेत तन, यामें कह संदेह ।। ६१ ॥ थूल अंग रुज संगत, जालु कृशित व्है जात । तहँ प्रदेश संकोचता, विदित विलोको भात ॥ ६२ ॥
(१२) गाथा-१३८ कालाणु अप्रदेशी ही है ।
___ मनहरण । कालानू दरव अप्रदेशी है असंख अनू, '
मिलन सुभावके सरवथा अभावते । सो प्रदेश मात्र पुग्गलानूके निमित्तसेती,
समै पर्ज प्रगटिकै वर्तत वतावते । आकाशके एक परदेशतें दुतीयपर,
जवै पुगलानु चले मंदगति दावत । ऐसे निश्च विवहारकालको सरूप भेद,
ज्ञानी जीव जानिके प्रतीत चित लावते ।। ६३॥ है