SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार [ १२९ दोहा । लोकाकाश प्रदेश प्रति, कालानू परिपूर । हैं असंख निरवाध नित, मिलन शकति दूर ।। ६४ ॥ ताही एक प्रदेशतें, जब पुदगल परमानु । चलै मंदगति दुतियपर, तब सो समय बखान ॥ ६५ ॥ याही समय प्रमानकरि, है धुव वय उतपाद । वरतमान सब दरवमें, विवहारिक मरजाद ॥६६॥ (१३) गाथा-१३९ उनके द्रव्य और पर्याय । मनहरण । एक कालअनूतँ दुतीय कालअनूपर, जात नवे पुग्गलानु मंदगति करिकै । तामें नो विलंब होत सोई काल दरवको, समै नाम परजाय जानो भर्म हरिकै ॥ ताके पुल परे जो पदारथ हैं नितभूत, सोई काल दरव है धौव धर्म धरिकै । समय परजाय उतपाद १५९५ कहे, ऐसे सरधान करो शंका परिहरिकै ॥ ६७ ॥ . दोहा । जो अखंड ब्रहमंडवत, काल दरवहू होत । समय नाम परजाय तब, कबहुं न होत उदोत ॥ ६८ ॥ मिन्न-भिन्न कालानु जब, अमिल सु....भी होय । गनितरीतिगत कर्ममें, तब ही बनै बनोय ॥ ६९ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy