SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३० ] कविवर वृन्दावन विरचित इक कालानू छांडिकै, जब दुतीयपर जात । पुग्गलानु गति मंद करि, तब सो समय कहात ॥ ७० ॥ सो निरंश अति सूक्ष्म है, काल दरवकी पर्ज । याहीत क्रम चढ़ि बढ़त, सागरांत लगु सर्न ॥ ७१ ।। प्रश्न पुग्गलानु गति शीघ्र करि, चौदहराजू जात । समय एकमें हे सुगुरु, यह तो बात विख्यात ॥ ७२ ।। तहां संपरसत कालके, अनु असंख मगमाहिं । याहूमें शंका नहीं, श्रेणीबद्ध रहाहिं ।। ७३ ॥ पुव्वापरके भेदतें, समयमाहिं तित भेद । असंख्यातं क्यों नहि कहत, यामें कहा निषेद ॥ ७४ ॥ उत्तरजिमि प्रदेश आकाशको, परमानू परमान । अति सूच्छिम निरअंश है, मापन गज परधान ॥ ७५ ॥ ताहीमें नित बसत है, अनु अनंतको खंध । अंश अनंत न होत तसु, लहि तिनको सनबंध ॥ ७६ ॥ यह अवगाहन शकतिकी, है विशेषता रीत । तिमि तित गति परिनामकी, है विचित्रता मीत ॥ ७७ ॥ समय निरंश सरूप है, वीजभूत मरजाद । सरव- दरव परवरतई, धुव वय पुनि उतपाद ॥ ७८ ।।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy