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________________ ४८] कविवर वृन्दावन विरचित सूक्ष्मान्तरित दूरके द्रव्यनि, सों न प्रतच्छ लखै अलपज्ञ । यातें निरावरन निरदूपित, छायक ही ज्ञानी सारन ॥ १८६ । (४२) उस ज्ञानमें ज्ञेयार्थ परिणमन लक्षण क्रिया नहीं है। षट्पद । जो ज्ञाता परिनवे, ज्ञेयमें विकलप धारै । तिहिको छायकज्ञान, नाहिं यों जिन उच्चारै ।। वह विकलपजुत वस्तु, वृन्द अनुभव न कर है । मृगतृष्णा इव फिरत, नाहिं संतोप धेरै है ॥ तातै विकलपजुतज्ञानको, नहिं छायकपदवी परम । यह पराधीन इन्द्रियजनित, वह सुबोध आतमधरम || १८७ ॥ (४३) संसारीके दोष वहाँ नहीं है। मिला। भगवन्त भनी जगजंतुनिको, जब कर्मउदै इत आवत है । । तब राग विरोध विमोहि दशा करि, नूतन वंध बढ़ावत है दिढ़ आतम जोति जगै जिनको, तिनको रस दै खिर जावत है । नहिं नूतन बंध बंधै तिनको, इमि श्रीगुरु वन्द बतावत है ॥१८८॥ (४४) केवली भगवान अबंध ही हैं। मनहरण । तिन अरहंतनिके इच्छाविना क्रिया होत, ___ कायजोग बैठन उठन डग भरनो । दिव्यध्वनि धारासों दुधारा धर्म भेद भने, . ____ताहीके अधारा भवपारावार तरनो ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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