________________
प्रवचनसार
[४९
W
मायाचार नारिनिमें नारिवेद-उदै जैसे । . , केवलीके तैसे औदयिकक्रिया वरनो ॥ देखो ! मेघमाला नाद करत रसाला उठि । चलत विशाला तैसे तहाँ उर धरनो ॥ १८९ ॥
दोहा । . प्रश्नः--पूछत शिष्य विनीत इत, विन इच्छा भगवान ।
दिच्छा शिच्छा देत किमि, उठत चलत थितिठान ।। १९०॥ उत्तरः-सुविहायोगत कर्म है, चलन-फिरनको हेत ।
सोई निज रस दै खिरत, उठत चलत थिति लेत ॥ १९१॥ बिन इच्छा जिमि चलत है, मेघ पवनके जोग । आरज श्रीअरहंत तिमि, विहरहिं कर्म-नियोग ।। १९२ ॥ भाषा-प्रकृति उदोत लगु, वानी खिरत त्रिकाल । स्वतः अनिच्छा रूपते, तहाँ अलौकिक चाल ॥ १९३ ।। रसन दशन हालै न कछु, लगत न ओठ लगार । विकृति होत नहि अंगको, महिमा अपरंपार ॥ १९४ ॥
अष्ट स्थानकतै 'वरन, · उपजत संजुतशोर । जिनध्वनि वर्जित तासते, जथा मेघ घनघोर ॥ १९५॥ सो जब तहाँ पुनीत जन, पूछहिं सन्मुख आय । दिव्यध्वनि तब खिरत है, निमित तासुको पाय ॥ १९६ ॥ निमित और नैमितकको, बन्यो बनाव अनाद । . सब मत मानत बात यह, यामें नाहिं विवाद ॥ १९७ ॥
९ १: वर्ण अक्षर ।