SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार [ २१५ सो परदर्वहिं पाय, राग विद्वेप मोह धरि । विविध करमको बन्ध, करत अपनो विकारकरि ॥ निज चिदानन्दके ज्ञान विनु, शुद्ध सिद्धपद नहिं ठरत । सो पाटकीटके न्यायवत, नित नूतन बन्धन वटत ॥६७॥ (१३) गाथा-२४४ मोक्षमार्ग-उपसंहार । सर्वया-मानिक । जो मुनि आतमज्ञान वृन्द जुत, सो पर दरवनिके जे थम । है तिनमें मोहित होत न कबहूँ, करत न राग न दोष अरंम ।। है सो निजरूपमाहिं निहचे थिर, है इकाम संजमजुत संम । हैं. सोई विविध करम छय करिके, देहि मोखमग सनमुख बंम ॥६८।। दोहा । इहि प्रकार निरधार करि, भापै शिवमग पर्म । ४ शुद्धपयोगमयी सुमुनि, गहैं लहैं शिवशर्म ॥ ६९ ॥ कवित्त-मात्रिक। जाके हिये मोह मिथ्यामत, हे भवि पूर रह्यौ भरपूर । कैसहुकै न तजै हठ सो सठ, ज्यों महि गहै गोह पग भूर ॥ जो कहुं सत्य सुनै तउ उरमें, धरै न सरधा अतिहि करूर । ताको यह उपदेश अफल जिमि, कूकरके मुखमाहिं कपूर ||७०॥ तातें अब इस कथन मथनको, सुनो सार भवि धरि उपयोग । सम्यक दरशन ज्ञानचरितमें, सुथिर होहु जुत शुद्धपयोग ॥ यही सुमुनिपद वृन्द अनूपम, यातें कटें करमके रोग । ताको गहो मिल्यौ यह मौसर, जैसे नदी नाव संजोग ।७१॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy