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________________ ११८ ] कविवर वृन्दावन विरचित । सब कालमाहिं सो अचल है, अवगाहन गुनको धेरै । तसु परे अलोकाकाश जहँ, पंच रंच नहि संच॥ ४ ॥ (३) गाथा-१२९ क्रियावती-भाववतीरूप द्रव्यके भाव हैं उनकी अपेक्षासे द्रव्यके भेद । दोहा। पुदगल अरु जीवातमक, जो यह लोकाकाश । ताके थिति उतपाद वय, परनति होत प्रकाश ॥५॥ भेद तथा संघाततै, ज्यों श्रुति करत बखान । ताको उर सरधा धरो, त्यागो कुमत-वितान ॥ ६ ॥ मनहरण । क्रियावंत भाववंत ऐसे दोय भेदनितें, दर्वनिमें भेद दोय भाषी भगवंत है । मिलि विठुरन हलचलन क्रिया है औ, सुभाव परनति गहै सोई भाववंत है ॥ जीव . पुदगलमाहिं दोनों पद पाइयत, धर्माधर्म काल नभ भाव ही गहत है । धन्य धन्य केवलीके ज्ञानको प्रकाश चन्द, एकै वार सर्व सदा जामें झलकत है ॥७॥ (४) गाथा-१३० अव यह बताते हैं कि-गुण-विशेष (गुणोंके भेद ) से द्रव्योंका भेद । मनहरण। जीवाजीव दर्व जिन चिह्ननितें भलिभांति, चीहे जाने जाहिं सोई लच्छन बखाना है ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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