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________________ प्रवचनसार [ २१७ ओं नमः सिद्धेभ्यः । अथ नवमःशुभोपयोगरूप मुनिपदाधिकारः। मंगलाचरण-दोहा। श्रीजिनवानी मुगुरु पद,, वदों शीस नवाय । सकल विघन जात मिटें, भविक वृन्द सुखदाय ॥ १ ॥ अब वरनत शुभभावजुत, मुनि पदवीकी रीति । श्रुति मथि गुरु संछेपत, करो सुभवि परतीति ॥ २ ॥ (१) गाथा-२४५ शुभोपयोगी तो गौणतया श्रमण है। दो विधिके मुनि होहिं इमि, कही जिनागममाहिं । एक शुद्धउपयोगजुत, इक शुभमगमें जाहिं ॥ ३ ॥ ने सुविशुद्धपयोगजुन, सदा निरास्रव तेह । . बाकी आलवसहित हैं, शुभ उपयोगी जेह ॥ ४ ॥ मिला । जिनमारगमें मुनि दोय प्रकार. दिगम्वररूप विराजत है । है इक शुद्धुपयोग विशुद्ध धरें, जिनतें करमानव भाजत है ॥ हैं दुतिये शुभ भाव दशा सु धेरै, तिनके करमानव छाजत है । है यह भाविक भेद सनातनतें, जिनआगम या विधि गाजत है ॥५॥ १ सवही परदर्वनिसों ममता, तजिके मुनिको व्रत धीर धेरै ।। ६ चित चंचल अंश कपाय उदै, नहिं आतम शुद्ध प्रकाश करें ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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