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________________ प्रवचनसार [ १०१ है दरवसत्त गुन-परज-गत, गुनसत एक सुधरम-रत । परजायसत्त क्रमको धरै, यात भेद प्रमानियत ॥ ६०॥ मनहरण । जैसे एक मोतीमाल तामें तीन भांत सेत, 'सेत हार सेत सूत सेतरूप मनिया । तैसे एक दर्वमाहिं सत्ता तीन भांत सोहै, दर्वसत्ता गुनसत्ता पर्जसत्ता भनिया । दरवकी सत्ता है अनंत धर्म सर्वगत, गुनकी है एक ही धरमरूप गनिया । परजकी सत्ता क्रमधारी ऐसी भेदाभेद, साधी मुनि वृन्द श्रुतसिंधुके मथनिया ॥ ६१ ॥ (१६) गाथा-१०८ सर्वथा अभाव अतद्भावका लक्षण नहीं है। दर्व जो है अनंत धरमको आधारभूत, सो न गुन होत यों विचार उर रखिये । तथा जो है गुन एक धर्म निजरूप करि, सोऊ दर्व नाहीं होत निहचै निरखिये ॥ ऐसे गुन-गुनीमें विभेद है सुरूप करि, सर्वथा जुदागी न अभाव ही करखिये । द्रव्य और गुनमें विभेद विवहार तसो, . . अनेकान्त पच्छसों विलच्छके हरखिये ॥ ६२ ॥ १ श्वेत-सफेद । २ गुरिया । .३ मयनेवाले ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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