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कविवर वृन्दावन विरचित
(४१) गाथा-१८६ पुद्गलोंको आत्मा यदि कर्मरूप
परिणमित नहीं करता तो आत्मा जड़ काँके द्वारा कैसे ग्रहण या त्यागरूप किया जाता !
मनहरण । सोई जीवदर्व अब संसार अवस्थामांहि,
अशुद्ध चेतना जो विभावकी ढरनि है । ताहीको वन्यौ है करतार ताके निमितसों,
याके आठ कर्मरूप धूलिकी धरनि है ॥ • सोई कर्म धूल मूल भूलको सुफल देहि,
फेरी काहू कालमाहिं तिनकी करनि है । ऐसे बंधजोग भाव आपनो विभाव जानि,
त्याग मेदज्ञानी जासों संमृत तरनि है ॥९॥ (४२) गाथा-१८७ पुद्गलकर्मीकी विचित्रताका (ज्ञाना
वरणीय आदिरूप.) कर्ता कौन ? जबै जीव राग-दोष समल विभावजुत,
शुभाशुभरूप परिनामको ठटत है । तबै ज्ञानावरनादि कर्मरूप परज याके,
. जोग द्वार आयकै प्रदेशपै पटत है ॥ जैसे रितु पावसमें धाराधर धारनितें,
धरनिमें नूतन अंकुगदि अटत है । तैसे ही शुभाशुभ अशुद्ध रागदोषनितें,
पुग्गलीक नयो कर्म बंधन वटत है ॥९५॥ .