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________________ प्रवचनसार [ १०३ (१८) गाथा-११० गुण-गुणीके अनेकत्वका खंडन करते हैं। - कुण्डलिया। ऐसो गुन कोऊ नहीं, दरव विना जो होय । विना दरव परजाय हू, जगमें लख न कोय ।। जगमें लखै न कोय, बहुरि दिढ़तर ऐसे सुन । दरवहिका अस्तित्वभाव; सोई सत्ता गुन ॥ . तिस कारन स्वयमेव, दरव सत्ता ही है सो । अनेकांतते सधत, वृन्द निरदूषन ऐसो ॥ ६६ ॥ (१९) गाथा-१११ द्रव्य के सत् उत्पाद, असत् उत्पाद होनेमें अविरोध सिद्ध करते हैं । छप्पय । ' या विधि सहजसुभावविर्षे, जो दरव विराजै । सो दरखौ परजाय, दोउ नयमय छबि छाजै ॥ दरवार्थिकनय द्वार, सदा सदभावरूप है । परजद्वारतें असदभाव, सोई प्ररूप है ॥ इन दो भावनिसंजुक्त नित, उतपत होत बखानिये । नयद्वार विविच्छाभेद है, वस्तु अभेद प्रमानिये ॥६७ ॥ . दोहा । । दो प्रकार उतपादजुत, दव रहत सब काल । सद उतपाद प्रथम कह्यो, दुतिय असतकी चाल ॥ ६८ ॥ दरव अनादि अनंत जो, निज परजैकेमाहि । उपजत हैं सो दरवग, सद उतपाद कहाहि ॥ ६९ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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