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________________ १०४ ] कविवर वृन्दावन विरचित जो पूरव ही थो नहीं, ताको जो उतपाद । सो परजय-नयद्वारते, असदभाव निरवाद ॥ ७० ॥ (२०) गाथा-११२ सत् उत्पादको अनन्यत्वके द्वारा निश्चित करते हैं। मनहरण । जीव दर्व आपने सुभाव प्रनवंत संत, ___ मानुष अमर वा अपर पर्ज धारैगो । तिन परजायनिसों नानारूप होय तऊ, ___ कहा तहाँ आपनी दरवशक्ति छोरैगो । जो न कहूं आपनी दरख शक्ति छोड़े तब, कैसे और रूप भयो निहचै विचारगो । ऐसे दर्व शक्ति नानारूप परजाय व्यक्त, जथारथ जाने वृन्द सोई आप तारेंगो ॥ ७१ ॥ (२१) गाथा-११३ अव असत् उत्पादको अन्यत्वके द्वारा निश्चित करते हैं। एक परजाय जिहिकाल परिनवै जीव, तिहिकाल और परजायरूप नहीं है। मानुष परज परिनयौ तब देव तथा, सिद्धपरजाय तहाँ कहां ठहराही है ।। देव परजायमें : मनुषसिद्ध पज कहाँ, ऐसे परजाय द्वार भेद विलगाही है। या प्रकार एकता न आई तब कैसे नाहिं, पजद्वार नाना नाम दरवलहाही है ॥ ७२ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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