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________________ १५८ ] कविवर वृन्दावन विरचित जीवके अशुद्ध उपयोग राग आदिकरि, होत मोह रागादि विभावको नथन है ॥ दोऊको परस्पर संजोग एक थान सोई, ___जीव पुग्गलातमके बंधको कथन है । ऐसे तीन बंधभेद वेदमें निवेद वृन्द, भेदज्ञानीजनित सिद्धांतको मथन है ॥७९॥ .. (३३) गाथा-१७८ द्रव्यबंधके हेतु भाववन्ध । ' असंख्यात प्रदेश प्रमान यह आतमा सो, ताके परदेश विप से उर आनिये । पुग्गलीक कारमान वर्गनाको पिंड आय, करत प्रवेश जथाजोग सग्धानिये ॥ फेरि एक छेत्र अवगाहकरि बंधत है, थिति परमान संग हैं ते सुजानिये । देय निज रस खि! जाहिं पुनि आपुहिमों, ___ ऐसो भेद भर्म छेद भव्य वृन्द मानिये ॥८०॥ दोहा । कायवचनमन जोगकरि, जो आतम पन्देश । कंपरूप होवें तहां, जोग वध कहि तेस ॥ ८१ ।। तासु निमित्ततें आवही; करमवरगना खंध । सो ईर्यापथ नाम कहि, प्रकृति प्रदेश सुबंध ॥ ८२ ॥ रागविरोध विमोहके, जैसे भाव रहाहि । ताहिके अनुसारतें, थिति अनुभाग बघाहिं ॥ ८३ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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