SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९६ ] कविवर वृन्दावन विरचित ' है जो है अनित्त कह नित्त पद, तो मनकी गति नित्त गन । । यात निरविधन त्रिधातमक, लच्छन द्रव्य प्रतच्छ भन ।। ४३ ॥ (९) गाथा-१०१ उत्पादादि द्रव्यसे पृथक पदार्थ नहीं । दु मिला। परजायविर्षे उतपादरु व्यै धुव, ____ वर्ततु हैं क्रमही करिके । निहकरि सो परजाय सदा, नित दर्वहिमाहिं रहै भरिके ।। तिहितें सबमें वह द्रव्यहि है, . सरवंग दशा अपनी धरिके । जिमि वृच्छत मूल न शाखा जुदे, तिमि द्रव्य लखो श्रमको इरिके ॥ ४४ ।। मनहरण । जसे वृच्छ अंशी ताके अंश वीज, अंकुरादि ___ तामें तीनों भेद भाव ऐसे लखि लीजिये । वीजको विनाश उतपाद होत अंकुरको, वृच्छ धुवताई ऐसी सरधा घरीजिये ॥ नूतन दरवको न होत उतपाद कहूँ, ___ यह तो असंभौ कभी चितमें न दीजिये । दर्वकी स्वभावरूप परजाय पर्नतिमें, तीनों दशा होत वृन्द याहीको पतीजिये ॥४५॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy