SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ ] कविवर वृन्दावन विरचित र परिपूरन जे धर्मानुराग । अवलंबै शुद्धपयोग त्याग । ताके फलते अहमिन्द इन्द । नर इन्द संपदा हैं वृन्द । १५ । तहाँ भोग मनोग शरीर पाय । विलसे, सुख बहुविधि प्रमित आय । तित आकुलता दुःख मिटें नाहिं । तब कहो कहाँ” सुखी आहिं ॥१६॥ (१०) गाथा-७८ पुण्य-पापमें बंधनत्व समान ही है। निर्णय करके राग-द्वेष-दुखको हटानेकी । दृढता-शुद्धोपयोगका ग्रहण । . . मत्तगयन्द। . . . : . १ जो नर या परकार जथारथ,-रूप पदारथको उर आनै ।. । रागविरोधमई परिनाम, कभी परद्रव्य वि नहिं ठाने ।। । सो उपयोग विशुद्ध धरे, सब देहज दुःखनिको नित माने । A आनंदकंद-भाव-सुधामधि, लीन रहै तिहि वृन्द प्रमानै ॥ १७ ॥ दोहा। 'आहनते 'दाहन विलग, खात न घनकी घात । त्यों चेतन तनराग विनु, दुखलव दहत न गात । १८ ॥ तातें मुझ चिद्रूपको, शरन शुद्धउपयोग । होहु सदा जानै मिटै, सकल दुखद. भवरोग ॥ १९ ॥ (११) गाथा-७९ मोहक्षयकी तैयारी मत्तगयन्दः । पाप अरंभ सभी परित्यागिके, जो शुभचारितमें वरतंता । है जो यह मोहको आदि अनादिके, शत्रुनिको नहिं त्यागत. संता ॥ १. लोहा। २. अग्नि।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy